क से कर्म का भूला प्राणी है,
ख से खाली हाथों जाना है,
ग से गर्व न करना इस दुनिया में आकर,
घ से घर का नहीं ठिकाना है,
ड़ अंगा को रचा रहा है।
च से चंचल मन ये डोलत है,
छ से छल का भरा ये चोला है,
ज से जान के क्यों बौराना है,
झ से झक मारेगा एक दिन तू,
क्योंकि ञ से यहाँ हाथ मसल रह जाना है।
ट से टाल समय कुछ आगे का,
ठ से क्यों ठगी मैं तू दीवाना है,
ड से डोले जब देह जमके ,
ढ से ढूंढे मिले ना ठिकाना है,
ण से ऋण सना है जीवन ये तेरा।
त से त्याग सभी को जाना है,
थ से थके ना तृष्णा पल भर भी ये,
द से दिल के बिषयों को मार भगाना है,
ध से धर्मी वही जो धर्म करे,
क्योंकि न से नाहक धन को पाना है।
प से पंचतत्व हैं ये अलग-अलग,
फ से फँस जायेगा पंछी अकेला,
ब से बिबस हुआ अब तू मंथन में,
भ से भजन बिना केवल पछताना है,
म से मात-पिता तू सबको जान।
य से यत्न आगे गर कुछ करना है,
र से रंग लो चोला हरी चरणों में,
ल से लग्न से प्रभु को पाना है,
व से वक़्त की क्या तज़बीज़ करें ।
श से शाम-सुबह होती नित-प्रत्य,
ष से सेक है तेरे मन में प्यारी,
स से सगुण से निर्गुण को पाना है,
ह से हर्ष-विषाद से सब विवाद हैं ।
क्ष से क्षण में परिवर्तन हो जाना है,
क्योंकि त्रिया समान जल जायेगा ये जीवन तेरा,
ज्ञ से ज्ञानी का यही तो कहना है ।
श्री १०८ हीरानंद महाराज, पीली कोठी ।
सुशिष्य श्री श्री १००८ देवानंद जी महाराज ।।
ख से खाली हाथों जाना है,
ग से गर्व न करना इस दुनिया में आकर,
घ से घर का नहीं ठिकाना है,
ड़ अंगा को रचा रहा है।
च से चंचल मन ये डोलत है,
छ से छल का भरा ये चोला है,
ज से जान के क्यों बौराना है,
झ से झक मारेगा एक दिन तू,
क्योंकि ञ से यहाँ हाथ मसल रह जाना है।
ट से टाल समय कुछ आगे का,
ठ से क्यों ठगी मैं तू दीवाना है,
ड से डोले जब देह जमके ,
ढ से ढूंढे मिले ना ठिकाना है,
ण से ऋण सना है जीवन ये तेरा।
त से त्याग सभी को जाना है,
थ से थके ना तृष्णा पल भर भी ये,
द से दिल के बिषयों को मार भगाना है,
ध से धर्मी वही जो धर्म करे,
क्योंकि न से नाहक धन को पाना है।
प से पंचतत्व हैं ये अलग-अलग,
फ से फँस जायेगा पंछी अकेला,
ब से बिबस हुआ अब तू मंथन में,
भ से भजन बिना केवल पछताना है,
म से मात-पिता तू सबको जान।
य से यत्न आगे गर कुछ करना है,
र से रंग लो चोला हरी चरणों में,
ल से लग्न से प्रभु को पाना है,
व से वक़्त की क्या तज़बीज़ करें ।
श से शाम-सुबह होती नित-प्रत्य,
ष से सेक है तेरे मन में प्यारी,
स से सगुण से निर्गुण को पाना है,
ह से हर्ष-विषाद से सब विवाद हैं ।
क्ष से क्षण में परिवर्तन हो जाना है,
क्योंकि त्रिया समान जल जायेगा ये जीवन तेरा,
ज्ञ से ज्ञानी का यही तो कहना है ।
श्री १०८ हीरानंद महाराज, पीली कोठी ।
सुशिष्य श्री श्री १००८ देवानंद जी महाराज ।।